पलामू: झारखंड में 2026 तक नक्सलियों का पूरी तरह से खात्मा होने की बात कही जा रही है. लेकिन कभी ऐसा भी था जब झारखंड लाल आतंक का दंश झेल रहा था. झारखंड और बिहार की सीमा पर मौजूद चक का इलाका नक्सलवाद का गढ़ हुआ करता था. यहां के पहाड़ी इलाकों में नक्सलियों के गोलियों की गूंज सुनाई देती थी. इस पूरे इलाके में नक्सलियों का खौफ ऐसा था कि सुरक्षाबलों का यहां दिन में भी पहुंचना मुश्किल होता था.
नक्सलियों के लिए पलामू के मनातू थाना इलाके का चक क्षेत्र उनकी राजधानी की तरह था. यहां से बिहार के गया, झारखंड के पलामू, चतरा और लातेहार में अपनी गतिविधि का संचालन करते थे. इन इलाकों में कभी नक्सलियों के जन अदालत की चीख सुनाई देती थी. यहां कदम कदम पर मौत इंतजार करती थी. घने जंगल में सन्नाटा ऐसा कि पत्तों की सरसराहट और पंछियों की आवाज भी मन में खौफ पैदा करते थे. ऐसे माहौल में सुरक्षाबलों को लगा कि यहां पर पुलिस पिकेट बनाए बिना इसे सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है. इसके बाद 2007-08 में यहां पुलिस ने पिकेट बनाना शुरू कर दिया.
नक्सलियों की राजधानी की तरह था चक का इलाका
चक इलाका नक्सलियों के लिए किले की तरह था. यहां पर पुलिस के लिए पिकेट बनाना आसान नहीं था. पहले तो यहां पहुंचना ही अपने आप में एक चुनौती से कम नहीं था. लेकिन उस दौरान पलामू एसपी रहे दीपक शर्मा ने इस चुनौती को स्वीकार किया. उन्होंने करीब 200 जवानों के साथ इलाके का दौरा किया नक्सलियों के किले पर कब्जे के लिए जमीन तलाशनी शुरू की.
कुछ महीनों के बाद 2007-08 में बारिश के बीच तत्कालीन एसपी दीपक वर्मा के नेतृत्व में करीब 400 जवान चक पहुंचे. इस टीम में जैप 1 और आईआरबी के जवान भी शामिल थे. सुरक्षाबलों का हौसला कम नहीं हो इसलिए दीपक कुमार ने फैसला किया कि वे खुद इस इलाके में कैंप करेंगे. तब दीपक वर्मा करीब एक हफ्ते तक यहां पर रहे. इस दौरान नक्सलियों की तरफ से जमकर गोलीबारी भी हुई. लेकिन सुरक्षाबलों ने नक्सलियों की गोलियों का ताबड़तोड़ जवाब दिया
इनफॉरमेंशन लीक ना हो इसलिए बाहरी मजदूर और गाड़ियों का हुआ इस्तेमाल
चक पर कब्जे के लिए बाहर के मजदूर और गाड़ियों का इस्तेमाल किया गया था. सबसे पहले मजदूरों को मनातू में जमा किया गया. इसके बाद 12 से भी अधिक ट्रैक्टर को लाया गया था. सभी ट्रैक्टर पर पिकेट निर्माण से जुड़ी हुई सामग्री को लादा गया और पुलिस की कड़ी सुरक्षा में पूरे सामग्री को चक में लाया गया था. किसी भी तरह का इंफॉर्मेशन लीक ना हो इसके लिए खास ख्याल रखा गया. यही वजह थी कि पिकेट निर्माण कार्य के लिए किसी भी स्थानीय मजदूर को नहीं रखा गया, क्योंकि इससे किसी भी तरह की जानकारी नक्सलियों को मिल सकती थी और हमला हो सकता था. सुरक्षाबलों के हौसले और वीरता के आगे नक्सलियों को घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा.
उस दौरान चक में पिकेट बनाना एक बड़ी चुनौती थी. उस दौरान योजना तैयार कर पुलिस मौके पर पहुंची. पिकेट के निर्माण कार्य में बाहर के मजदूर और गाड़ियों का इस्तेमाल हुआ. उस दौरान नक्सलियों ने हमला भी किया और लगातार फायरिंग हुई. हमले में उनका एक मोर्टार पिकेट के अंदर भी गिरा था लेकिन वह फटा नहीं, सुरक्षाबलों ने इस हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया.- दीपक वर्मा, रिटायर आईजी (तत्कालीन एसपी)
अपनी मांद में पुलिस के घुसने से बौखलाए नक्सली, किया हमला
अपने किले में पुलिस के पहुंचने से नक्सली पूरी तरह से बौखला गए. जहां पुलिस पिकेट बनाया गया था वहां से 50 से 100 मीटर की दूरी पर कई घर मौजूद थे. पिकेट निर्माण के दौरान हल्की बारिश हो रही थी और ठंड भी थी. पिकेट निर्माण शुरू होने के दो दिनों के अंदर ही नक्सलियों ने पूरे इलाके को घेर लिया. हमले के दिन उन्होंने पिकेट के पास बने घरों में पनाह ली. जैसे ही सूर्यास्त हुआ और अंधेरा फैला एक साथ चारों तरफ से फायरिंग शुरू हो गई. लगातार छह घंटों तक दोनों तरफ से ताबड़तोड़ गोलियां चलीं. हजारों राउंड फायर किए गए. लेकिन सुरक्षाबलों के हौसले और बहादुरी के कारण नक्सलियों को वहां से भागना पड़ा. करीब 6 महीनों की अथक मेहनत और गोलियों की बौछार के बीच यहां पर पहला पुलिस पिकेट बनकर तैयार हुआ.
उस दिन हल्की बारिश हो रही थी, शाम का वक्त था ग्रामीण अपनी मवेशियों को बांधने के लिए घर से बाहर नहीं निकले थे. शुरुआत में जवानों को आशंका हुई, लेकिन लगा की बारिश के कारण लोग घर से बाहर नहीं निकले. सूर्य ढलने के साथ फायरिंग शुरू हो गई. शुरुआत में लगा कि बारिश हो रही है, लेकिन जब नक्सलियों ने पिकेट पर हमला किया तो जवानों ने अपनी पोजीशन ली और जवाबी फायरिंग की. कई बम और मोर्टार पिकेट के अंदर आए थे. – विजय, आईआरबी जवान
पिकेट के बाहर जवानों को नक्सलियों ने मारी गोली
चक पिकेट बनने के बाद 2008 में दो जवान चाय पीने के लिए कैंप से बाहर निकले थे. दोनों जवान को नक्सलियों ने चाय की दुकान पर ही गोली मार दी. इस घटना में एक जवान मौके पर शहीद हो गए, जबकि दूसरा जख्मी हो गए. जिस दुकान पर जवानों को गोली मारी गई थी वह बेला देवी नाम की महिला की थी. गोलीबारी के बाद बेला देवी का पूरा परिवार चक छोड़कर भाग गया.
बेला देवी का घर पिकेट के सामने ही है, जबकि उसकी चाय की दुकान बाजार में है. घटना को याद करते हुए बेला देवी बताती हैं कि उनकी दुकान पर ही नक्सलियों ने जवानों को गोली मारी थी. घटना के बाद दो वर्षों तक पूरा परिवार फरार रहा था. वापस लौटने के बाद साहस के साथ दोबारा दुकान शुरू की. वह बताती हैं कि पिकेट बनने के दौरान उनके घर में भी नक्सलियों ने कब्जा किया था. उनके घर से भी फायरिंग की जा रही थी.
रेड कॉरिडोर पर एक साथ नजर रखना हुआ आसान
चक में बने पुलिस पिकेट के जरिए नक्सलियों के कॉरिडोर पर पहरा बैठाया जाने लगा. यहां से झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के रेड कॉरिडोर पर एक साथ सुरक्षाबल नक्सलियों की गतिविधियों पर नजर रख सकते थे. लेकिन ये इतना आसान नहीं होने वाला था. ये वो दौर था जब नक्सल हिंसा चरम पर थी. नक्सली अपना प्रभाव और तेज करने के लिए कई वारदातों को अंजाम दे रहे थे.
नक्सलियों ने चक को क्यों बनाया था अपना यूनिफाइड कमांड
चक का इलाका दो तरफ झारखंड और बिहार की सीमा पर मौजूद है. यह इलाका बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के रेड कॉरिडोर का अहम पड़ाव था. दक्षिण भारत में जाने के लिए नक्सली चक से ही अपने सफर की शुरुआत करते थे. जबकि दक्षिण भारत के नक्सली उत्तर भारत के इलाके में अंतिम सफर चक तक करते थे. यह सफर जंगल पहाड़ और पैदल होता था. चक घने जंगलों से घिरा हुआ है और इसके दो तरफ नदियां हैं.
चक का इलाका इतना दुर्गम है कि तब यहां पर पुलिस और सुरक्षा बल किसी भी प्रकार के वाहन का इस्तेमाल कर यहां तक नहीं पहुंच सकते थे. बिहार का गया और पलामू का मेदिनीनगर जैसे शहर चक से नजदीक थे. इन्हीं इलाकों से नक्सलियों को सभी प्रकार की सामग्री आसानी से मिल जाती थी. वे चक में अपना ठिकाना बनाते थे और यहां बैठक करते थे.
पिकेट बनने के बाद नक्सलियों ने की पूरे इलाके की नाकेबंदी
चक में पिकेट का विरोध करने के लिए नक्सलियों ने स्थानीय ग्रामीणों पर दबाव बनाया था. शुरुआत में ग्रामीणों की तरफ से विरोध पर सहमति दी गई, लेकिन बाद में ग्रामीणों ने इंकार कर दिया. इससे नाराज होकर नक्सलियों ने 2009-10 में चक में नाकेबंदी की घोषणा कर दी.
उस दौरान सब कुछ थम गया था. चक की एक बड़ी आबादी पलायन कर गई. ग्रामीण खौफ के दौर से गुजर रहे थे. नक्सलियों का विरोध करने के लिए बोल रहे थे, लेकिन ग्रामीण विरोध नहीं कर पा रहे थे. नक्सलियों ने पूरे इलाके में बंद की घोषणा की थी जिससे लोग त्रस्त हो गए थे.- उदेश्वर यादव, निवासी, चक
करीब डेढ़ साल तक पूरे चक को बंद कर दिया गया, डेढ़ वर्ष तक यह पूरा इलाका आर्थिक नाकेबंदी की दौर में रहा. इस दौरान पूरे चक के बाजार बंद रहे. किसी भी प्रकार की आर्थिक गतिविधि का संचालन नहीं हो रहा था. लोगों को अपनी जरूरत की सामग्री खरीदने के लिए 25 किलोमीटर दूर बिहार के इमामगंज, रानीगंज या 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. इस दौरान किसी भी प्रकार के वाहन का इस्तेमाल ग्रामीण नहीं करते थे.
आर्थिक नाकेबंदी हटाने के दौरान बाल-बाल बचे एसपी
चक के इलाके में ग्रामीणों को मदद पहुंचाने की पलामू पुलिस ने योजना तैयार की. इस योजना के तहत इलाके में नक्सलियों की घेराबंदी को खत्म करना था. पुलिस इलाके के बाजार और दुकानों को खुलवाना चाहती थी. 2010 में पलामू के तत्कालीन एसपी अनूप टी मैथ्यू पुलिस की बड़ी टीम के साथ चक जा रहे थे. तभी रास्ते में लैंड माइंस विस्फोट हुआ, जिसमें दो जवान शहीद हो गए.
वह दौर खौफ वाला था. वोटिंग के दौरान भी लोगों को डर लगता था. वोटिंग से पहले पूरे इलाके को छावनी में तब्दील कर दिया जाता था. नक्सलियों के खौफ से उस दौरान लोग वोट भी देने नहीं जाते थे. चक में मतदान के लिए कर्मी हेलीकॉप्टर से आते और जाते थे. 2024 के चुनाव में पहली बार मतदान कर्मी सड़क मार्ग से चक पहुंचे.- इस्लाम, चक निवासी
जिस रोड पर यह हमला हुआ था उसे केंद्रीय गृह मंत्रालय देश का सबसे संवेदनशील सड़क मानती थी. चक जाने के रास्ते में 2008 से 2011 के बीच 6 जवान शहीद हुए. चक जाने वाले रास्ते पर पुलिस और सुरक्षाबल के जवान पैदल एवं वाहनों से सफर नहीं करते थे. यहां से 2018-19 तक जवान हेलीकॉप्टर के माध्यम से छुट्टी पर जाते थे या फिर यहां पहुंचते थे. जवानों की जरूरत की सामग्री भी हेलीकॉप्टर से ही आती थी.
बौखलाए नक्सलियों ने किए कई हमले
2007-08 के बाद नक्सलियों ने चक में कई बड़े हमले को अंजाम दिया. पिकेट बनने से पहले जिस स्कूल में पुलिस और सुरक्षाबल के जवान रुके थे नक्सलियों ने उसे विस्फोट कर उड़ा दिया. 2009 में हुए चुनाव के बाद भी चक के स्कूल को विस्फोट कर उड़ाया गया था. चक में मौजूद मोबाइल टावर को भी नक्सलियों ने उड़ा दिया. इस दौरान दो बार चक पिकेट पर हमला किया गया.
पिकेट के कारण सुरक्षित माहौल तैयार हुआ है. चक के इलाके में बदलाव हुआ है अब वहां मॉल बन रहे हैं. लोग खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं. यह सुरक्षा की दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है. चक पिकेट से झारखंड-बिहार सीमा पर निगरानी होती है. इसके साथ ही साथ नक्सलियों के खिलाफ अभियान भी चलाया जाता है. – रीष्मा रमेशन, एसपी पलामू
अब हालात बदल गए हैं, पहले वाला माहौल नहीं है. लोग बेखौफ होकर यात्रा कर रहे हैं. अब नेता और अधिकारी भी चक आते हैं और उनकी समस्याओं को सुनते हैं.- रंजीत, स्थानीय
जिस स्कूल को कभी नक्सलियों ने उड़ाया था, आज उस स्कूल में करीब 1700 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं. चक अब पूरी तरह से बदल गया है.- इमामुद्दीन, स्थानीय
नक्सलियों की कैद से आजाद चक ले रहा राहत की सांस
2006-07 के बाद चक के हालात पूरी तरह से बदल गए हैं. जहां पहले बाजार बंद नजर आते थे वहां पर अब मॉल की तरह दुकानें बन गई हैं. चक जाने वाली सड़क पर अभी किसी भी प्रकार के नक्सली का खौफ नजर नहीं आता है. पुलिस के जवान और अधिकारी नियमित रूप से सड़क से आते जाते हैं. 2019 के विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में पहली बार जनप्रतिनिधि भी इलाके में प्रचार के लिए पहुंचे.