हजारीबाग: आधुनिकता की दौड़ में फगुआ के राग धीरे-धीरे गायब होते जा रहे थे. लेकिन फिर से लोग अपने पारंपरिक फगुआ के राग की ओर लौट रहे हैं. होली का पर्व नजदीक है. बसंत पंचमी की शुरुआत के साथ ही गांव में फगुआ के राग सुनाई देने लगे हैं. जैसे-जैसे होली का पर्व नजदीक आ रहा है शहर में भी ढोलक, झाल, हारमोनियम, ढोल, झांझर और अन्य व वाद्य यंत्र से लोग फगुआ का आनंद उठा रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में लोग बाहर से कलाकार बुलाकर फगुआ के गीतों का आनंद ले रहे हैं. इससे नई पीढ़ी को अपने लोक संस्कृति से जुड़ने का मौका मिल रहा है.
झारखंड, बिहार और यूपी में फगुआ के गीतों का विशेष महत्व है. बसंत पंचमी के बाद से ही गांव के गली चबूतरे से फगुआ के राग सुनाई देने लगते हैं. ग्रामीण मंडली लगाकर फगुआ के गीतों का आनंद लेते हैं. बदलते आधुनिक दौर के साथ फगुआ के गीत को डीजे ने कमजोर कर दिया था.
हजारीबाग शहर में लगभग 100 से अधिक होली मिलन समारोह का आयोजन किया गया. जहां 70 प्रतिशत से अधिक जगह पर फगुआ के गीत सुनने को मिले. स्थानीय विस्मय अलंकार कहते हैं कि फगुआ के गीत हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं. हालांकि कुछ सालों में आधुनिकता के कारण कहीं खो गया था. फिर से लोग फगुआ का जमकर आनंद उठा रहे हैं.
ग्रामीण क्षेत्र से आकर फगुआ के कलाकार फाग के गीत गा रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्र से फगुआ के गीत कलाकार चेतलाल रविदास बताते हैं कि फगुआ के गीत धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे थे. जिस कारण से ग्रामीण क्षेत्रों में कलाकारों की भी कमी आ गई थी. फिर से लोग फगुआ के गीतों का जमकर आनंद उठा रहे हैं. इससे कलाकारों को भी काफी खुशी होती है.
फगुआ के गीत की गूंज इस बात को साबित करती है कि परंपराएं भले ही समय के साथ कमजोर पड़ जाए. लेकिन वह कभी मरती नहीं है. समय का चक्र ऐसा चलता है कि परंपराएं फिर से जीवित हो जाती हैं.