झारखंड में झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने भाजपा पर दबाव बनाने के लिए कोयला रॉयल्टी के बकाया और सरना धर्म कोड जैसे मुद्दों को उठाया है। गठबंधन इन मुद्दों को आदिवासी और गैर-आदिवासी मतदाताओं के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उपयोग कर रहा है। झामुमो ने सरना कोड नहीं तो जनगणना नहीं का नारा दिया है। गठबंधन की सफलता केंद्र सरकार के रुख पर निर्भर करती है
रांची। झारखंड की राजनीति में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) – कांग्रेस – राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) पर दोतरफा दबाव बनाने की रणनीति अपनाई है।
यह रणनीति कोयला रायल्टी के बकाया और सरना धर्म कोड जैसे क्षेत्रीय और सांस्कृतिक मुद्दों पर केंद्रित है। नीति आयोग की हाल ही में संपन्न बैठक में कोल रायल्टी के बकाया का मुद्दा फिर से उभरने और झामुमो-कांग्रेस के सरना कोड को लेकर आक्रामक रुख के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन इन मुद्दों को आदिवासी और गैर आदिवासी मतदाताओं के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उपयोग कर रहा है।
सवाल यह उठता है कि यह रणनीति भाजपा के खिलाफ कितनी प्रभावी होगी तो यह दोनों गठबंधन की दीर्घकालिक रणनीति पर निर्भर करता है।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा इस मुद्दे को फिर से उठाया जाना सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है। गठबंधन का दावा है कि केंद्र सरकार ने पूर्व के बकाया राशि का भुगतान अभी तक नहीं किया है। पिछले वर्ष संपन्न विधानसभा चुनाव में झामुमो का कब मिलेगा 1.36 लाख करोड़ कैंपेन कमाल दिखा चुका है।
उधर भाजपा इस मुद्दे पर रक्षात्मक स्थिति में है। बकाया भुगतान में देरी के कारण सत्तारूढ़ गठबंधन को उसपर हमला करने का मौका मिला है।
यदि केंद्र सरकार जल्द ही इस बकाये को चुकाने में विफल रहती है तो जेएमएम-कांग्रेस इसे झारखंड विरोधी नीति के रूप में प्रचारित कर सकती है, जिससे भाजपा को आगे भी नुकसान हो सकता है।
सरना धर्म कोड को लेकर मुहिम
सरना धर्म कोड की मांग झारखंड के आदिवासी समुदायों के लिए एक भावनात्मक और सांस्कृतिक मुद्दा है। झामुमो ने 27 मई को राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है।
इसमें सरना कोड नहीं तो जनगणना नहीं का नारा प्रमुख है। कांग्रेस भी इस मुद्दे पर सक्रिय है और उसकी लामबंदी आदिवासी मतदाताओं को एकजुट करने की रणनीति का हिस्सा है।
झारखंड की 26% आदिवासी आबादी, जिसमें 28 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं, इस मुद्दे पर संवेदनशील है। झामुमो और कांग्रेस ने 2019 और 2024 के विधानसभा चुनावों में आदिवासी सीटों पर शानदार प्रदर्शन किया।
दूसरी ओर भाजपा ने इस मुद्दे पर अस्पष्ट रुख अपनाया है। उसने सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच विभाजन को उभारने की कोशिश यह दावा करते हुए की है कि ईसाई आदिवासियों को आरक्षण का अनुचित लाभ मिल रहा है।
यह रणनीति 2024 के चुनावों में विफल रही। भाजपा केवल एक आदिवासी सुरक्षित विधानसभा सीट जीत पाई। इससे पहले उसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा का आदिवासी सुरक्षित सीटों पर खाता तक नहीं खुल पाया।
भाजपा की चुनौतियां और गठबंधन की रणनीति
भाजपा की रणनीति में रोटी, बेटी और माटी का नारा और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे मुद्दे शामिल रहे हैं, लेकिन ये आदिवासी क्षेत्रों में प्रभावी नहीं हुए।
इसके विपरीत, झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने स्थानीय मुद्दों जैसे मंइयां सम्मान योजना, सरना कोड और 1932 खतियान नीति पर ध्यान केंद्रित किया, जिससे आदिवासी और गैर आदिवासी मतदाताओं में उनकी पकड़ मजबूत हुई।
हालांकि, सत्तारूढ़ गठबंधन के सामने चुनौतियां भी हैं। कोल रायल्टी के बकाये का समाधान केंद्र सरकार के हाथ में है और यदि भाजपा इसे हल कर लेती है तो वह इस मुद्दे का श्रेय ले सकती है।
सरना कोड पर गठबंधन का आक्रामक रुख आदिवासी मतदाताओं को एकजुट रख सकता है, लेकिन गैर आदिवासी मतदाताओं में इसका प्रभाव सीमित हो सकता है।
केंद्र के रुख पर निर्भरता
सत्तारूढ़ गठबंधन की दोतरफा रणनीति कोल रायल्टी और सरना कोड झारखंड की स्थानीय और सांस्कृतिक भावनाओं को भुनाने में सक्षम है। 2024 के विधानसभा चुनावों में झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाले गठबंधन की 56 सीटों पर जीत इसके प्रभावशीलता को दर्शाती है।
यदि गठबंधन अपनी एकता और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान बनाए रखता है तो वह भाजपा पर दबाव बनाए रखने में सफल हो सकता है। हालांकि, कोल रायल्टी के समाधान और सरना कोड पर केंद्र की प्रतिक्रिया इस रणनीति की दीर्घकालिक सफलता को निर्धारित करेगा।