लातेहारः भारत विविधताओं का देश है. पग-पग यहां परंपराएं बदलती हैं, पर्व-त्योहार को लेकर उनकी मान्यताएं हैं उन्हें मनाने का तरीका भी अलग अलग स्थानों पर विभिन्न है. होली का त्योहार भी कुछ ऐसा ही है, जिसका आदिवासी समाज में अलग महत्व है और तरीका भी अलग है.
हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन शुभ बेला में होलिका दहन करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है. ऐसी मान्यता है कि होलिका की अग्नि में मानव द्वारा अपनी सभी बुराईयों को जला दिया जाता है. होलिका दहन के साथ ही होलाष्टक भी समाप्त हो जाता है. इस दिन लोग सुख-समृद्धि और पारिवारिक उन्नति की ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.
क्या है प्रचलित और पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अपने भाई हिरण्यकश्यप की बातों में आकर उनकी बहन होलिका ने प्रह्लाद को आग में जलाने की कोशिश की थी. इस दिन दैत्यराज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका (जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था) भक्त प्रह्वाद को लेकर अग्नि में बैठ गई थीं. लेकिन प्रह्वाद को इस अग्नि से कुछ भी नहीं हुआ और स्वयं होलिका ही उस अग्नि में भस्म हो गईं.
इसी पौराणिक परंपरा के तहत ही देश-दुनिया में हिंदू समाज द्वारा होलिका दहन किया जाता है. लेकिन झारखंड के लातेहार का आदिवासी समाज इसे अपनी मान्यता के हिसाब से मनाता है. लातेहार जिला मुख्यालय समेत आसपास के इलाके में होलिका दहन के दिन एक विशेष परंपरा भी है.
भक्त प्रह्लाद को बचाकर घर ले जाने की परंपरा

यहां होलिका दहन के दौरान भक्त प्रह्लाद को बचाकर अपने घर ले जाने के लिए लोगों में होड़ मच जाती है. सैकड़ों लोगों की भीड़ में किसी एक को भक्त प्रह्लाद मिलते हैं. मान्यता है कि प्रह्लाद को जो अपने घर ले जाता है उसके घर सालों भर सुखी और संपन्नता रहती है.
दरअसल, लातेहार जिला मुख्यालय समेत आसपास के इलाकों में होलिका दहन के स्थल पर स्थानीय बैगा (पारंपरिक पुजारी) के द्वारा सेमल (Cotton trees) की डाली को जमीन में मिट्टी के सहारे खड़ा कर दिया जाता है. उसके बाद सेमल की डाली के चारों ओर लकड़ी रखकर होलिका सजाई जाती है. जब होलिका दहन का मुहूर्त आता है तो बैगा होलिका दहन स्थल पर पहुंचता है और होलिका में आग लगाता है.
सेमल की डाली होता है भक्त प्रह्लाद का स्वरूप
आग लगाने के तुरंत बाद सेमल की डाली के ऊपरी भाग को जिसे लोग भक्त प्रह्लाद का स्वरूप मानते हैं, उसे बैगा के द्वारा तेज धार टांगी से एक झटके में काटकर होलिका की आग से बाहर निकाला जाता है. बैगा द्वारा जैसे ही भक्त प्रह्लाद रूपी सेमल की डाली के ऊपरी डाली को आग से बाहर निकालता है, वैसे ही लोग उसे पाने के लिए दौड़ जाते हैं.
इस सेमल की डाली को पाने के लिए पलक झपकते ही सैकड़ों की भीड़ जुट जाती है. वहां उपस्थित भीड़ में कोई एक व्यक्ति ही उस भक्त प्रह्लाद रूपी डाली को पाने में सफल होता है और वह उसे लेकर घर भाग जाता है. इस परंपरा के समापन के बाद ही होलिका दहन का कार्यक्रम आरंभ होता है.
बरसों से चली आ रही परंपरा
लातेहार के स्थानीय निवासी राजेश सिंह ने बताया कि यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. वो लगभग 45 वर्षों से खुद इस परंपरा को देखते आ रहे हैं. इस परंपरा की मान्यता है कि होलिका दहन के दौरान राक्षसी होलिका तो जल जाती है, परंतु भगवान विष्णु के महान भक्त बालक प्रह्लाद भीषण आग में भी पूरी तरह सुरक्षित निकल जाते हैं.
सेमल की डाली को भक्त प्रह्लाद का स्वरूप माना जाता है. स्थानीय बैगा के द्वारा जलती आग में से भक्त प्रह्लाद रूपी सेमल की डाली को बाहर निकाला जाता है. ऐसी मान्यता है कि जिसके घर भक्त प्रह्लाद पहुंचते हैं, उनके घर साल भर सुखी, संपन्नता और शांति बनी रहती है. भगवान विष्णु की कृपा भी उस घर पर बनी रहती है.
होलिका दहन के दौरान सेमल की डाली से लगाए जाते हैं कई पूर्वानुमान
स्थानीय निवासी प्रमोद प्रसाद ने बताया कि होलिका दहन में भक्त प्रह्लाद को अपने घर ले जाने के लिए छीना-झपटी होने के साथ-साथ इसकी कई अन्य मान्यताएं भी हैं. उन्होंने बताया कि सेमल की डाली से आने वाले समय में मौसम के साथ-साथ प्राकृतिक आपदा का भी पूर्वानुमान लगाया जाता है.
बैगा के द्वारा होलिका दहन से भक्त प्रह्लाद निकालने से पहले सेमल की डाली के चारों ओर निकली छोटी-छोटी चार डालियों को भी चारों दिशाओं में जाकर काटा जाता है. डालियों के गिरने के स्थान से आने वाले समय में मौसम के पूर्वानुमान के साथ-साथ प्राकृतिक आपदा का भी पूर्वानुमान लगाया जाता है.